68 वें गणतंत्र दिवस की बहुत बहुत शुभकामनायें !
दोस्तों आज हम 68 वां गणतंत्र दिवस मना रहे हैं। एक तरह से देखा जाये तो हमारा गणतंत्र वृद्धावस्था की और बढ़ रहा है। अगर पीछे मुड़कर देखें तो ? क्या पाया? ये एक ज्वलंत प्रश्न खड़ा दिखता है। अपने समाज में, सोसायटी में जो असन्तुलन की खाई है, वो बढती जा रही है। तमाम कोशिशों के बावजूद हम आज भी देश से गरीबी को नहीं मिटा पाएं है। गरीबी तो दूर की बात है, हम मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं जूता पाएं है।
गरीबी भारत में चारों तरफ फैली हुई है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से, गरीबी का प्रसार चिंता का विषय है। ये 21वीं शताब्दी है, और गरीबी आज भी लगातार बढ़ रही गंभीर खतरा है। 1.30 बिलियन जनसंख्या में से 29.7% से भी अधिक जनसंख्या आज भी गरीबी रेखा से नीचे है। ये ध्यान देने वाली बात है कि पिछले दशकों में गरीबी के स्तर में गिरावट हुई है लेकिन अमीरों और गरीबों के बीच की रेखा को पूरी तरह से धुंधला करने के प्रयासों का कड़ाई से अनुसरण करने की आवश्यकता है। एक राष्ट्र का स्वास्थ्य, राष्ट्रीय आय और सकल घरेलू उत्पाद से अलग, यहाँ के लोगों के जीवन स्तर से भी निर्धारित होता है। इस प्रकार, गरीबी किसी भी राष्ट्र के विकास में धब्बा बन जाती है।
यूँ तो भारत में एक से बढ़कर एक अमीर भी है। अभी अपन ने नोट बंदी के दौरान ये दृश्य देखें है। लेकिन क्या कोई ये अनुमान लगा सकता है की हम अभावों में जीने के आदि हो गएँ हैं। हाँ हम ऐसे हो गएँ हैं। हमें बना दिया गया है। या कुछ और कह लो। लेकिन ये सचाई है, क्योंकि अगर मेरा पेट भर गया तो मुझे भूख दिखाई नहीं देगी। मैं कल के इंतजाम भी आज ही कर लेना चाहता हूँ। चाहे कोई भूखा सोये मेरे को कोई मतलब नहीं है। ये ये सोच हो गयी है, हमारी।
हरित क्रांति को याद करिये। हम भूखों मरने के कगार पर थे। वो एक सद्प्रयास ही था इस दिशा में। आज हमें वैसे ही प्रयासों की जरुरत है। एक क्रांति और। गरीबी हटाने को लेकर पूरी ईमानदारी के साथ।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय ने कहा है कि देश के ग्रामीण इलाकों में सबसे निर्धन लोग औसतन महज 17 रुपये प्रतिदिन और शहरों में सबसे निर्धन लोग 23 रुपये प्रतिदिन में जीवन यापन करते हैं।
अखिल भारतीय स्तर पर औसतन प्रति व्यक्ति मासिक खर्च ग्रामीण इलाकों में करीब 1,430 रुपये, जबकि शहरी इलाकों में 2,630 रुपये रहा। एनएसएसओ ने कहा, इस प्रकार से शहरी इलाकों में औसत प्रति व्यक्ति मासिक खर्च, ग्रामीण इलाकों के मुकाबले करीब 84 प्रतिशत अधिक रहा।
ग्रामीण भारतीयों ने 2014-15 के दौरान खाद्य पर आय का औसतन 52.9 प्रतिशत खर्च किया, जिसमें मोटे अनाज पर 10.8 प्रतिशत, दूध और दूध से बने उत्पादों पर 8 प्रतिशत, पेय पर 7.9 प्रतिशत और सब्जियों पर 6.6 प्रतिशत हिस्सा शामिल है। गैर-खाद्य वस्तुओं के वर्ग में खर्च में घरेलू उद्देश्यों के लिए ईंधन और बिजली (परिवहन खर्च छोड़कर) पर खर्च आठ प्रतिशत, कपड़ा एवं जूता-चप्पल पर सात प्रतिशत, दवा इलाज पर 6.7 प्रतिशत, शिक्षा पर 3.5 प्रतिशत खर्च किया गया।
हमें गरीबी हटाने के लिए अमीरों की तरह नहीं गरीबों की तरह सोचना होगा। कैसे ? ऐसे जब एक गरीब किसी अमीर को देखता है उसके लक्सरी, ऐसो आराम के साधनों की तरफ देखता है तो उस के मन में क्या विचार आता है। यहीं विचार सरकारों व् अमीरो के मन में आएगा तो कुछ सकारात्मक कदम उठाये जा सकते है। जब कोई गरीब दिखाई दे तो हमें ये सोचना होगा की उसकी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ में कैसे कर सकता हूँ। न की ये की में और अमीर कैसे बन सकता हूँ। सरकारों ने जहाँ पर मरहम लगाने की जरुरत थी, इन 68 वर्षों में वहां न लगाकर कहीं और ही लगाया है।
वहीं दूसरी ओर, आबादी के शीर्ष पांच प्रतिशत का प्रति व्यक्ति मासिक खर्च ग्रामीण इलाकों में 4,481 रुपये, जबकि शहरी इलाकों में 10,282 रुपये रहा। एनएसएसओ की विज्ञप्ति में कहा गया है कि उसका 68वां सर्वेक्षण ग्रामीण इलाकों में 7,496 गांवों और शहरों में 5,263 इलाकों के नमूनों पर आधारित है।
पता नहीं अच्छे दिन कब आएंगे।
लेकिन आज भी अमीरों से ज्यादा उल्लास गरीबों में है।
उन्होंने अनुकूलन की परिभाषा जन्म से ही सीखी हुयी है।
कृतज्ञ राष्ट्र के हर उत्सव में बढ़ चढ़कर भाग लेते है।
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