ईश्वर कहाँ है ?
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भोलेनाथ , शिव , शिवम् , महादेव, महेश |
माता-पिता और आचार्य ये तीनों गुरु कहलाते हैं। माता पहला गुरु है। बच्चे को पहली शिक्षा माता से ही मिलती है माता बच्चे को व्यावहारिक शिक्षा देती है। उसे अपने शरीर के अंगों का, सगे सम्बन्धियों का, बच्चे के संपर्क में आने वाले पशु पक्षियों का ज्ञान कराती है। उसे उठना बैठना, हँसना, बोलना, दूसरों का आदर करना व स्नेह करना सिखाती है।
माता पुत्र को जो शिक्षा देती है, उसमें पिता भी सहयोग करते हैं। जब बच्चा बड़ा होता है तो उसकी जिज्ञासाएं भी बढ़ने लगती है। इन जिज्ञासाओं को उन्नत और प्रोत्साहित करने की मुख्य जिम्मेदारी पिता की होती है, माता सहयोग करती है। आचार्य का शिक्षा सम्बंधित उत्तरदायित्व उपनयन संस्कार के साथ या यों कहे कि विद्यालय में प्रवेश के साथ आरम्भ होता है।
पुराने समय में बड़ो के प्रति शालीनता के तथा ईश्वर भक्ति के संस्कार बचपन में ही डाल दिए जाते थे। ईश्वर कैसा है? कहाँ रहता है? क्या करता है? आदि बातें बच्चा पिता से ही सीख लेता है। उन दिनों आजीविका की समस्या इतनी विकट नहीं थी। पिता को इतना समय आसानी से मिल जाता था कि वह पुत्र की शंकाओ का निवारण कर सके तथा साथ साथ उसमें अच्छे संस्कार डाल सके।
उसी समय के एक पुत्र ने पिता से पूछा कि --"पिता जी, हम परमात्मा को मानते हैं। वह सब कुछ बनाता है। सब कुछ देखता है। उससे कोई वस्तु, कोई बात छिपी नहीं है। वह दयालु है और कल्याणकारी है। हमें जन्म देने वाला, पालने वाला और मिटाने वाला भी वही है। वह हमारे भले बुरे सब तरह के कर्मो को देखता है और उनका उचित फल देता है, ऐसा भी हम मानते है. पर वह रहता कहाँ है? और कैसा है? यह हम नहीं जानते। आपको यह सब मालूम होगा अतः मुझे भी बताइये। "
पिता ने कहा --"बेटा ! परमात्मा सब जगह रहता है. संसार के कण कण में उसका निवास है। पर वह निराकार है। निराकार होने के कारन वह हमें दिखाई नहीं देता। इन कानों से हम उसकी आवाज नहीं सुन सकते। हमारा हाथ उसे छू नहीं सकता। ये आँखे उसे देख नहीं सकती। रसना या जीभ उसे चख नहीं सकती। नाक से उसे सूँघा नहीं जा सकता। उसे बुद्धी के द्वारा विचारा जाता है। मन से मनन किया जाता है। आत्मा से अनुभव किया जाता है। योग साधना से पाया जा सकता है। कहा है ---
हर जगह मौजूद है, पर वह नजर आता नहीं।
योग साधना के बिना, उसको कोई पाता नहीं।।
पुत्र ने कहा --"में समझ नहीं पाया। कुछ और खोलकर समझाइये। "
पुत्र को समझने के लिए पिता ने एक मुठी नमक लिया और उसे दिखाकर वह नमक पानी से भरे हुए एक शीशे के जग में डाल दिया। पानी को हिलाकर उसने पुत्र को कहा --"देखो, और बताओ, नमक कहाँ है? पुत्र ने कहा कि नमक तो पानी में मिल गया। " पिता ने पूछा "दिखता है?" पुत्र ने उत्तर दिया, "दिखता तो नहीं, अदृश्य हो गया है। "."पर है या नहीं ?" "है तो ""कहाँ?" "सारे पानी में" पिता ने कहा --"बेटा ! इस नमक को आँखों से नहीं देखा जा सकता पर इस पानी की हर बून्द में नमक है। नमक के होने को पानी का स्वाद बताएगा, हमारी आंखे नहीं बताएंगी। परमात्मा भी इसी प्रकार सारे संसार में है, कण कण में है, सभी वस्तुओं में है। पर उसे हमारी जीभ भी नहीं बता सकती। नमक पहले दिख रहा था, अब नहीं दिख रहा। किन्तु परमात्मा को कभी भी आँखों से या दूसरी बाहरी इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता। उसे अंदर की आंख से अपने ही अंदर देखा जा सकता है।जब उसके दर्शन हो जाते है तो फिर तो सब जगह वह ही वह दिखाई देता है.
दही में घी है पर दिखाई नहीं देता है। उसे निकलने के लिए दही को मथना पड़ता है। तिलों में तेल है पर दिखता नहीं। तेल पाने के लिए तिलों को पेलना पड़ता है। लकड़ी और पत्थर में छिपी आग को देखने के लिए उसे रगड़ना पड़ता है। इसी प्रकार हमारे अंदर व बहार के संसार में उस परमात्मा को अंदर की आँखों से देखने के लिए योग की आवश्यकता है। उसे ध्यान के द्वारा देखने के लिए अनुभव करने के लिए आत्मा व परमात्मा के मेल की साधना की आवश्यकता है। "
पिता के इस प्रकार समझाने पर पुत्र समझ गया कि सब जगह रहते हुए भी परमात्मा दिखाई क्यों नहीं देता, और उसे कैसे देखा जा सकता है।
शिक्षा
हमरा अच्छा या बुरा कोई भी काम परमात्मा कि नजर में है। बुरे काम का बुरा फल मिलता है। अतः हमें सदा अच्छा काम ही करना चाहिए क्योंकि ईश्वर सब कुछ देख रहा है।
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