जमाना रंग अपना कुछ न कुछ सब पर चढ़ाता है।
मगर कुछ लोग रंग अपना चढ़ाते है ज़माने पर।।
अमल से जिंदगी बनती तो हम सब ही बना लेते।
नवाजिश जब तलक उसकी न हो, कुछ हो नहीं सकता ।।
यह कहानी स्वामी दयानंद के बचपन की है। उनके हदय में ऊपर लिखी दो जिज्ञासाएँ उत्पन्न हुयी थी। इन जिज्ञासाओं का समाधान खोज कर उन्होंने ज़माने पर अपना रंग चढ़ा ही दिया।
गुजरात (काठियावाड़)राज्य में टंकारा नाम का एक छोटा सा नगर है। यहाँ आज से लगभग एक शताब्दी पूर्व एक ब्राह्मण परिवार रहता था। इस परिवार के मुखिया कर्षण जी थे। यह परिवार धन धान्य से संपन्न था। कर्षण जी शिव भक्त थे। उनके घर फाल्गुन कृष्ण दशमी संवत १८८१ विक्रमी (सन १८२४) में एक बालक ने जन्म लिया, जिसका नाम मूलशंकर रखा गया।
किसी को क्या पता था की यह बालक संसार को जीवन ज्योति प्रदान करेगा। पाखण्डो में फंसे हुए लोगो को ज्ञान का प्रकाश देकर सन्मार्ग पर चलाएगा।
पिता पौराणिक परिपाटी के शिवभक्त थे, अतः वे पुत्र को भी अपने जैसा ही शिव भक्त बनाना चाहते थे।
बालक मूलशंकर की बुद्धि तीव्र थी, अतः उसने बाल्यावस्था में ही पुराणों की अनेक कथाएं याद कर ली, साथ ही दस वर्ष की अवस्था तक संस्कृत के कई छोटे छोटे ग्रन्थों को भी पढ़ लिया। घर के वातावरण ने उन्हें पूरी तरह शिव पर श्रद्धा रखने वाला भक्त बना दिया। वे प्रतिदिन मंदिर जाकर शिव की अर्चना करते और "ऊँ नमः शिवायः " मंत्र का जाप करते थे।
एक साधारण सी घटना के कारन मूलशंकर के जीवन में एक नया मोड़ आ गया। शिव रात्रि का अवसर था। परिवार में सबने बड़ी श्रद्धा से शिव रात्रि का व्रत रखा। पिता ने इन्हे भी कहा, "बेटा मूल ! तुम भी शिव रात्रि का व्रत रखो। व्रत रखने से देवताओं के देवता, महादेव शिव शंकर प्रसन्न होंगे। वे सारे संसार के स्वामी हैं। तुम्हे बहूत पुण्य मिलेगा। शिव जी के दर्शन होंगे। "
इस उपदेश को सुनकर मूलशंकर ने भी श्रद्धा पूर्वक व्रत रख लिया। सारा दिन कुछ खाया पिया नहीं। सायंकाल होते ही पिता के साथ वह शिव पूजन के लिए मंदिर में पहुँच गया। उसने सारी रात जागकर शिव की पूजा करने का निश्चय किया। उस समय मूलशंकर की आयु ११ वर्ष की थी।
दिन भर निराहार रहकर मूल शंकर ने शिव पुराण की कथा सुनी। स्वंय भी शिव स्त्रोत का पाठ किया। उसके ह्दय में भक्ति का अथाह समुद्र हिलारें ले रहा था। पिता के समान उसने भी शिव पूजन सामग्री अर्पित करते हुए शिव पूजन किया। एक पहर बीत गया। दूसरे पहर का पूजन आरम्भ हुवा। जब तीसरे पहर का पूजन आरम्भ हुवा तो भक्त लोग खर्राटे भरने लगे।
मंदिर में सन्नाटा छाया हुवा था। परन्तु मूलशंकर सच्ची श्रद्धा के साथ शिव की सेवा में जाग रहा था। उसे भय था की कही सो जाने के कारण व्रत भंग न हो जाये और वह व्रत के पुण्य से वंचित न रह जाये। उसी समय एक अद्भुत घटना घटी। इस घटना ने बालक मूलशंकर के हदय में एक क्रांति की लहर उत्पन्न कर दी। उथल पुथल मचा दी।
एक चूहा मंदिर में से किसी बिल से निकल कर महादेव जी की मूर्ति पर आ चढ़ा और उस पर चढ़ाये हुये फलों को खाने लगा। यह देखकर बालक मूलशंकर के मन में अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगे। क्या यह वही शिव है जो संसार को चलते हैं? क्या ये सच्चे शिव है ? यदि यहाँ सच्चे शिव होते तो क्या यहाँ छोटा सा चूहा इस तरह अपमान कर पता ? शिव पुराण में तो इन्हे दैत्यों का विनाश करने वाला कहा गया है। तो क्या संसार का उत्पादक,पालक और संहारक शिव कोई और है ? यदि वह है तो कौन है ?
अपनी शंकाओ के समाधान के लिए मूलशंकर ने समीप ही सो रहे पिता जी को जगाया। कर्षण जी उसके प्रश्नों का उतर न दे सके। उन्होंने झुंझला कर शिव के बारे में ऐसी बातें न करने को कहा। परन्तु मूलशंकर अब भी सोच रहा था, की यह सच्चा शिव नहीं हो सकता। जो अपने ऊपर से एक छोटे से चूहे को नहीं हटा सकता वह हमारी और संसार की रक्षा कैसे कर सकता है। इसी उद्दिग्नता में वह मंदिर से उठकर घर चला आया। पानी पीकर व्रत तोड़ दिया। मूलशंकर के मन में अब सच्चे शिव को पाने की लगन उत्पन्न हो चुकी थी। सच्चा शिव कोन है? उसका रंग रूप क्या है? वह कहाँ रहता है? उसे किस प्रकार पाया जा सकता है? इन विचारों ने मूलशंकर को संसार की चहल पहल से उदासीन बना दिया। इस घटना के पश्चात मूलशंकर ने अपना मन पढ़ाई -लिखाई में लगा लिया।
लगभग दो वर्ष बाद एक रात मूलशंकर अपने संबंधियों के साथ किसी मित्र के घर में कोई खेल तमाशा देखने गया हुवा था।
वही उसे पता चला की उसकी बहन को हैजा हो गया है। वैधों ने उसकी बहन को बचाने का पूरा प्रयास किया , परंतु वह बच न सकी। मूलशंकर ने अपनी आँखों से यह पहली मृत्यु देखी थी। जिस बहिन को चार छह घंटे पहले वह हंसती खेलती छोड़ कर गया था, वह अब दुनिया से उठ गयी। घर के लोगों ने रोना पीटना शुरू कर दिया परन्तु मूलशंकर दीवार से लगा हुवा चुपचाप मृत्यु के बारे में सोचता रहा।
कुछ समय और बीता और फिर एक दिन उसके चाचा भी परलोक सिधार गए। मरने से पहले चाचा ने मूलशंकर को बड़ा प्यार दिया था। उनके मरने पर मूलशंकर भी फूट फूट कर रोया। जबकि बहिन के मरने पर वह सोचता ही रहा था। बहिन की मृत्यु पहला धक्का था। चाचा की मृत्यु दूसरा धक्का बन गई। वह सोचने लगा यह सब क्या है। क्या सभी को एक न एक दिन मरना है। क्या मैं भी ऐसे ही मर जाऊंगा। आखिर मृत्यु क्या है ? क्या मनुष्य इससे मुक्त नहीं हो सकता ?
मूलशंकर को वैराग्य होने लगा। वह घर बार छोड़कर सच्चे शिव की खोज में निकल गए। मूलशंकर ही बाद में दयानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए।
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